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The X - Factor

Monday, 23 May 2016

ऐसी आई. ए. एस. बिटिया के लिए क्या कहेगे आप ..?

बिना कोचिंग, बिना गाइडेंस बनी IAS : - 
         मई महीने की 3 तारीख को रोज की तरह वंदना दोपहर में अपने दो मंजिला घर में ही ग्राउंड फ्लोर पर बने अपने पिताजी के ऑफिस में गई और आदतन सबसे पहले यूपीएससी की वेबसाइट खोली. वंदना को दूर-दूर तक अंदाजा नहीं था कि आज आईएएस का रिजल्ट आने वाला है. लेकिन इस सरप्राइज से ज्यादा बड़ा सरप्राइज अभी उसका इंतजार कर रहा था. टॉपर्स की लिस्ट देखते हुए अचानक आठवें नंबर पर उसकी नजर रुक गई. आठवीं रैंक. नाम- वंदना. रोल नंबर-029178. बार-बार नाम और रोल नंबर मिलाती और खुद को यह यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह मैं ही हूं. हां, वह वंदना ही थी. भारतीय सिविल सेवा परीक्षा 2012 में आठवां स्थान और हिंदी माध्यम से पहला स्थान पाने वाली 24 साल की एक लड़की वंदना की आंखों में इंटरव्यू का दिन घूम गया. हल्के पर्पल कलर की साड़ी में औसत कद की एक बहुत दुबली-पतली सी लड़की यूपीएससी की बिल्डिंग में इंटरव्यू के लिए पहुंची. शुरू में थोड़ा डर लगा था, लेकिन फिर आधे घंटे तक चले इंटरव्यू में हर सवाल का आत्मविश्वास और हिम्मत से सामना किया. बाहर निकलते हुए वंदना खुश थी. लेकिन उस दिन भी घर लौटकर उन्होंने आराम नहीं किया. किताबें उठाईं और अगली आइएएस परीक्षा की तैयारी में जुट गईं.

IAS-2012-Topper-Vandana

        यह रिजल्ट वंदना के लिए तो आश्चर्य ही था. यह पहली कोशिश थी. कोई कोचिंग नहीं, कोई गाइडेंस नहीं. कोई पढ़ाने, समझने, बताने वाला नहीं. आइएएस की तैयारी कर रहा कोई दोस्त नहीं. यहां तक कि वंदना कभी एक किताब खरीदने भी अपने घर से बाहर नहीं गईं. किसी तपस्वी साधु की तरह एक साल तक अपने कमरे में बंद होकर सिर्फ और सिर्फ पढ़ती रहीं. उन्हें तो अपने घर का रास्ता और मुहल्ले की गलियां भी ठीक से नहीं मालूम. कोई घर का रास्ता पूछे तो वे नहीं बता पातीं. अर्जुन की तरह वंदना को सिर्फ चिड़‍िया की आंख मालूम है. वे कहती हैं, ‘‘बस, यही थी मेरी मंजिल.’’
       वंदना का जन्म 4 अप्रैल, 1989 को हरियाणा के नसरुल्लागढ़ गांव के एक बेहद पारंपरिक परिवार में हुआ. उनके घर में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था. उनकी पहली पीढ़ी की कोई लड़की स्कूल नहीं गई थी. वंदना की शुरुआती पढ़ाई भी गांव के सरकारी स्कूल में हुई. वंदना के पिता महिपाल सिंह कहते हैं, ‘‘गांव में स्कूल अच्छा नहीं था. इसलिए अपने बड़े लड़के को मैंने पढऩे के लिए बाहर भेजा. बस, उस दिन के बाद से वंदना की भी एक ही रट थी. मुझे कब भेजोगे पढऩे.’’
महिपाल सिंह बताते हैं कि शुरू में तो मुझे भी यही लगता था कि लड़की है, इसे ज्यादा पढ़ाने की क्या जरूरत. लेकिन मेधावी बिटिया की लगन और पढ़ाई के जज्बे ने उन्हें मजबूर कर दिया. वंदना ने एक दिन अपने पिता से गुस्से में कहा, ‘‘मैं लड़की हूं, इसीलिए मुझे पढऩे नहीं भेज रहे.’’ महिपाल सिंह कहते हैं, ‘‘बस, यही बात मेरे कलेजे में चुभ गई. मैंने सोच लिया कि मैं बिटिया को पढ़ने बाहर भेजूंगा.’’
       छठी क्लास के बाद वंदना मुरादाबाद के पास लड़कियों के एक गुरुकुल में पढऩे चली गई. वहां के नियम बड़े कठोर थे. कड़े अनुशासन में रहना पड़ता. खुद ही अपने कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना और यहां तक कि महीने में दो बार खाना बनाने में भी मदद करनी पड़ती थी. हरियाणा के एक पिछड़े गांव से बेटी को बाहर पढऩे भेजने का फैसला महिपाल सिंह के लिए भी आसान नहीं था. वंदना के दादा, ताया, चाचा और परिवार के तमाम पुरुष इस फैसले के खिलाफ थे. वे कहते हैं, ‘‘मैंने सबका गुस्सा झेला, सबकी नजरों में बुरा बना, लेकिन अपना फैसला नहीं बदला.’’
दसवीं के बाद ही वंदना की मंजिल तय हो चुकी थी. उस उम्र से ही वे कॉम्प्टीटिव मैग्जीन में टॉपर्स के इंटरव्यू पढ़तीं और उसकी कटिंग अपने पास रखतीं. किताबों की लिस्ट बनातीं. कभी भाई से कहकर तो कभी ऑनलाइन किताबें मंगवाती. बारहवीं तक गुरुकुल में पढ़ने के बाद वंदना ने घर पर रहकर ही लॉ की पढ़ाई की. कभी कॉलेज नहीं गई. परीक्षा देने के लिए भी पिताजी साथ लेकर जाते थे.
        गुरुकुल में सीखा हुआ अनुशासन एक साल तैयारी के दौरान काम आया. रोज तकरीबन 12-14 घंटे पढ़ाई करती. नींद आने लगती तो चलते-चलते पढ़ती थी. वंदना की मां मिथिलेश कहती हैं, ‘‘पूरी गर्मियां वंदना ने अपने कमरे में कूलर नहीं लगाने दिया. कहती थी, ठंडक और आराम में नींद आती है.’’ वंदना गर्मी और पसीने में ही पढ़ती रहती ताकि नींद न आए. एक साल तक घर के लोगों को भी उसके होने का आभास नहीं था. मानो वह घर में मौजूद ही न हो. किसी को उसे डिस्टर्ब करने की इजाजत नहीं थी. बड़े भाई की तीन साल की बेटी को भी नहीं. वंदना के साथ-साथ घर के सभी लोग सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. उनकी वही दुनिया थी.

       आईएएस नहीं तो क्या? ‘‘कुछ नहीं. किसी दूसरे विकल्प के बारे में कभी सोचा ही नहीं.’’ वंदना की वही दुनिया थी. . वही स्वप्न और वही मंजिल. उन्होंने बाहर की दुनिया कभी देखी ही नहीं. कभी हरियाणा के बाहर कदम नहीं रखा. कभी सिनेमा हॉल में कोई फिल्म नहीं देखी. कभी किसी पार्क और रेस्तरां में खाना नहीं खाया. कभी दोस्तों के साथ पार्टी नहीं की. कभी कोई बॉयफ्रेंड नहीं रहा. कभी मनपसंद जींस-सैंडल की शॉपिंग नहीं की. अब जब मंजिल मिल गई है तो वंदना अपनी सारी इच्छाएं पूरी करना चाहती है. घुड़सवारी करना चाहती है और निशानेबाजी सीखना चाहती है. खूब घूमने की इच्छा है.
       आज गांव के वही सारे लोग, जो कभी लड़की को पढ़ता देख मुंह बिचकाया करते थे, वंदना की सफलता पर गर्व से भरे हैं. कह रहे हैं, ‘‘लड़कियों को जरूर पढ़ाना चाहिए. बिटिया पढ़ेगी तो नाम रौशन करेगी.’’ यह कहते हुए महिपाल सिंह की आंखें भर आती हैं. वे कहते हैं, ‘‘लड़की जात की बहुत बेकद्री हुई है. इन्हें हमेशा दबाकर रखा. पढऩे नहीं दिया. अब इन लोगों को मौका मिलना चाहिए.’’ मौका मिलने पर लड़की क्या कर सकती है, वंदना ने करके दिखा ही दिया है |
           
            वंदना  जी  की  यह  सफलता  दर्शाती  है  कि जिंदगी कितनी ही रुकावटें  क्यों  ना  हो  यदि  दृढ  संकल्प  और  कड़ी मेहनत   से  कोई  अपने  लक्ष्य -प्राप्ति  में  जुट  जाए  तो  उसे  सफलता  ज़रूर  मिलती  है । आज  उन्हें  IAS officer बने  4  साल  हो  चुके  हैं  पर  उनके  संघर्ष  की  कहानी  हमेशा  हमें प्रेरित  करती  रहेगी।
अंत में वंदना जी के लिए यही कहना चाहूँगा ......
" I love to see a young girl go out and grab the world by the lapels. Life’s a bitch. You’ve got to go out and kick ass."

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